आजकल हम रोजाना समाचार-पत्रों में पढते है कि अमूक परिवार को लूट लिया गया, अमूक व्यक्ति के बेटे पत्नी या लडकी को अगवा कर लिया गया, कहीं यह पढते है कि छोटी सी कहा सूनी पर एक लडके ने दूसरे साथी की हत्या कर दी या उपद्रव हो गया। कहीं यह पढते हैं कि राह चलती छात्रा को उसके सहपाठियों ने अगवा कर सामुहिक रूप से बलात्कार करने के बाद निमर्मतापूर्वक हत्या कर डाली। कभी यह पढने में आता ह कि एक बाप ने अपनी मासूम बेटी को अपनी हवस का शिकार बना डाला।
कभी यह पढने में आता है कि अमूक व्यवसायी, पेशेवर या राज्य कर्मचारी, अधिकारी ने तनाव, अवसाद या आर्थिक तंगी के चलते अपने मासूम बच्चों व पत्नी की हत्या कर दी व बाद में स्वंय भी आत्महत्या कर ली या बाद में पुलिस के सामने समर्पण कर दिया या नहीं तो किसी ने तनाव देने वाले अपने अधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी। कभी किसी गिरोह ने किसी मासूम बच्चे, लडके या औरत का अपहरण कर फिरोती की मांग कर डाली। रोजाना तरह तरह के संगीन अपराध बढते ही जा रहे हैं। इन सब घटनाओं को लेकर आये दिन पुलिस को कठघरे में खडा किया जाता है। अगर हम ठण्डे दिमाग से विचार करें कि जिसने अपराध करना है तो वह तो करेगा ही। हर जगह व हर स्थान या घर के बाहर तो पुलिस तैनात की नहीं जा सकती। इसके अलावा पुलिस किसी शातिर के मन के अन्दर क्या उबाल चल रहा है इसका तो अध्ययन कर नहीं सकती। लेकिन आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। क्यों अपराध बढ रहे हैं। क्यों व्यक्ति का मन अशांत है क्यों बच्चे अपराधी बन रहे हैं। क्यों आत्महत्याएं, हत्याएं, चोरी, लूटपाट, मिलावट, घूसखोरी बढ रही है। आखिर अपराध की मूल जडे कहाँ है। जब तक हम अपराधों की मूल जडों के कारणों की खोज नहीं करेगें व उन जडों पर काम नहीं करेगें। तब तक हम कुछ भी कर लें अपराध कम नहीं होने वाले अपितु हम और ज्यादा भयानक स्थितियों के शिकार होने वाले ह। अपराधों को लेकर लेखक, पत्रकार, समाजविज्ञानी, अधिकारी, राजनेता सभी अपने-अपने हिसाब से तर्क देते हैं व अपनी चिन्ता व्यक्त करते रहते हैं।
जब भी कोई भी वारदात होती है आम जन पुलिस को दोष देने लगती हैं कि पुलिस ने यह नहीं किया वो नहीं किया या उक्त कदम पुलिस उठाती तो यह हादसा नहीं होता या फलां विभाग के अधिकारी उक्त सावधानी बरतते तो उक्त घटना, लूटपाट, डकैती, चौरी, आगजनी, पथराव या दंगा आदि नहीं होता। यधपि कुछ मामले ऐसे होते हैं जिनमें पुलिस त्वरित कार्यवाही कर समाजकंटकों व अपराधियों से निपट सकती है व निपटती भी ह। लेकिन अपराध हो ही नहीं या कहीं कोई अपराध सुनियोजित षडयन्त्रपूर्वक कारित हो रहा है व वह धटनास्थल पुलिस की पहच से दूर है या अपराध करने का समय व स्थान ऐसा है जहाँ आम जन को भनक नहीं लग सकती तब पुलिस क्या कर सकती है। अक्सर पुलिस पर यह आरोप लगा दिये जाते हैं कि पुलिस समय पर इत्तला देने पर भी नहीं पहची। ऐसी कोताही आम तौर पर कम ही होती है। ऐसा जरूर हो सकता है कि पुलिसकर्मियों के पास थाने पर जो साधन है वे पहले से ही किसी और कार्यवाही या धटना से निपटने में लगा दिये गये हों।
फिर भी अगर ऐसी चूक कोई पुलिसकर्मी करता है तो उसके खिलाफ उच्चाधिकारी प्रभावी कार्यवाही भी करते हैं व उक्त कार्यवाही के भय से पुलिसकर्मी कम ही चूक करते हैं अगर फिर भी कोई पुलिसकर्मी लापरवाही करता है अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति नहीं निभाता तो हमें विचार करना पडेगा कि क्यों अमूक पुलिसकर्मी जन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। आये दिन पुलिस के उच्चाधिकारियों के पास थाने स्तर के कर्मियों के खिलाफ नाना प्रकार की शिकायतें आती रहती है कि अमूक मामले में अनुसंधान में ढिलाई बरती गई या फलां पुलिसकर्मी ने पीडित के साथ दुर्व्यवहार किया या पुलिस की मिलीभगत से ऐसा हो गया। यधपि ऐसे मामले भी बहुत होगें इससे इन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन ऐसे मामलों के लिए समूची पुलिस, पुलिस के मुखिया या गृह मंत्री को दोष देना कहाँ उचित है।
राजस्थान पुलिस में जिम्मेदार व संवेदनशील और ईमानदार अधिकारियों व कर्मियों की भी कमी नहीं है। ऐसे बहुत से पुलिस अधिकारी व कर्मचारी हैं जो आम जन की पीडा को दूर करने में रचनात्मक ढंग से सकारात्मक सोच रखते हुए कार्य कर राहत देते हैं व बहुत से ऐसे दिवंगत हो गये जिन्होंने अपनी जान की बाजी लगा दी व आज भी बहुत से ऐसे हैं जो ड्यूटी की खातिर अपनी जान पर खेलने को तैयार हो जाते हैं। यधपि बदली हुई सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों में पुलिस के पास संसाधनों व अत्याधुनिक उपकरणों की उपलब्धता के लिहाज से प्रत्येक थाना क्षेत्र व उसकी बसावट की जटिलता की दृष्टि से विचार करें तो संगठित गिरोहों व अपराधियों की तुलना में संसाधनों का अब भी बहुत अभाव है। भौतिक दृष्टि से तो इसकी पूर्ति करना आवश्यक है। यधपि पिछले वर्षों में साधनों में वृद्वि हुई लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। लेकिन क्या भौतिक साधनों में वृद्वि मात्र से ही पुलिस को जो सम्मान मिलना चाहिये मिल जायेगा या पुलिस की कार्यकुशलता बढ जायेगी। वास्तव में आजकल या पहले भी पुलिसकर्मियों के विरूद्व जो भी आरोप लगते रहे हैं वे सभी व्यक्ति के व्यवहार, आचरण व चरित्र से जुडे हुए हैं।
यह बात बहुत गंभीर व विचारणीय है कि क्य व्यक्ति अनुचित कार्यों या भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाता है या क्यों व्यक्ति दूसरे के प्रति संवेदनशीलता खो रहा है। पुलिस कहीं बाहर से थोडी आई है सभी पुलिसकर्मी हमारे समाज के ही बन्धु है लेकिन वे सेवा में आने के बाद ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। ये समस्या आज हर किसी की है क्योंकि व्यक्ति आज खुद के सुख की खातिर दूसरे को किसी भी हद तक जाकर कष्ट देने या सपरिवार हत्या तक करने को तैयार है यह रोग एक दिन में पैदा नहीं हुआ है और इस रोग से आज हमारे समाज का हर तबका ग्रसित है लेकिन कहीं कोई उपाय नहीं सूझता।
वास्तव में आज के भौतिक युग में ईंसान आर्थिक व प्रतिष्ठागत महत्वाकांक्षाओं के चलते इतना खो गया है व इतना दबाव और तनाव में एक मशीन की भांति जी रहा है कि वह दूसरे को तो क्या खुद को भी सुनने को तैयार नहीं है। इस कारण अनेक प्रकार की कुठांए जन्म ले रही हैं। हालांकि शिक्षा व्यवस्था व पारिवारिक सामाजिक परिवेश इसके लिए बहुत हद तक दोषी है। जो शिक्षा हमें दी जा रही है वह केवल सूचनाओं की गठरी है उसका ईंसान बनाने से कोई लेना देना नहीं व इससे अधिकांश नकारात्मक सोच वाले तथाकथित स्वार्थकेन्द्रित व्यक्ति ही तैयार हो रहे हैं जिसकी वजह से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में हिंसा बढ रही है। जिन्दगी से वर्तमान शिक्षा का कोई लेना देना नहीं। इस आंधी की चपेट में पुलिसकर्मी क्या हर शासक और प्रशासक है।
हम शासन में प्रशासन में हर जगह भ्रष्टाचार की बात करते हैं लेकिन भ्रष्टाचार कहीं बाहर नहीं है भ्रष्टाचार हमारे मस्तिष्क में हैं। आजकल हम व्यक्ति के मन और शरीर को देखें तो वह बहुत ही कमजोर है। कमजोर मन के व्यक्ति में आत्मविश्वास नहीं होता व वह स्वार्थवश सभी के साथ परेशानी पैदा करता ह। वास्तव में हमारे शरीर में भी चोर तत्व विधमान है उसके लिए किसी अनुशासन रूपी डंडे की नहीं बल्कि मन के अन्दर बसी स्वार्थ रूपी गंदगी को बाहर निकालने के लिए सनातन् ध्यान व योग आधारित क्रियाओं को पुलिसकर्मियों के जीवन का एक हिस्सा बनाना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि योग-ध्यान व सात्विक, संतुलित और पोषण युक्त खान-पान एक स्वस्थ व अच्चे आचरण का ईंसान तैयार करने में मददगार होता है। पुरी दुनियां में आजकल योग व खान-पान के फायदों की चर्चा हो रही है।
यह र्निविवाद है कि जब तक कोई व्यक्ति सकारात्मक सोचेगा, देखेगा, पीयेगा, खायेगा नही ंतो सकारात्मक व्यवहार कैसे करेगा।यधपि गत वर्षों में पुलिसकर्मियों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अनेक कार्यक्रमों की रचना हुई है। उनसे उन्हें फायदा भी हुआ है। लेकिन पुलिसकर्मियों के पोजीटिव मेंटल एटीट्यूड पर अब भी वृहत पैमाने पर कार्य करना आवश्यक है। मेंटल एटीट्यूड पर कार्य किये बिना पुलिसकर्मियों के आचरण व व्यवहार में सुधार नहीं आयेगा व आये दिन आरोप लगते रहेगें व जनता और पुलिस के बीच खायी बरकरार रहेगी और अपराध बेलगाम होकर बढते रहेगें। पोजिटिव मटल एटीटयूड विकसित करने के लिए अध्यात्म का मार्ग ही सहायक हो सकता है किताबी शिक्षा या अन्य कोई प्रशिक्षण नहीं।
हम प्रत्येक पुलिसकर्मी या अधिकारी की अपराधियों से निपटने में उठाये गये कदमों व आम जन के हित में उठाये गये रचनात्मक कदमों का अध्ययन कर सकते है कि जहां भी किसी पुलिसकर्मी या अधिकारी ने अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक ढंग से विस्तृत कर सेवा की है उसके बेहतर परिणाम आये हैं। प्रत्येक ईंसान मन की इच्छाओं का पुतला है। भोग की आंधी का बडो पर क्यों बच्चों पर भी उलटा असर हो रहा है ऐसे में जबकि हर कोई साधन सुविधाओं को ईकठा करने या बैंक बैलेन्स को बढाने में लगा हुआ है ऐसी आंधी के दर में समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ-साथ पुलिस व प्रशासन के सभी लोगों के मन को प्रशिक्षित करना भी अति आवश्यक है। आज जिन्दगी की गाडी जो हमें पटरी से नीचे उतरी दिख रही है उसका मुख्य कारण है जीवन में से अध्यात्म को दूर करना या बिसरा देना। अध्यात्म कोई पूजा-पाठ, धर्म या मत की उपासना नहीं है बल्कि अध्यात्म नित्य जीवनचर्या का वह महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति विभिन्न ५श्वास व ध्यान आधारित योगिक क्रियाओं व पोषणयुक्त आहार के साथ वर्तमान के संग में जीवन जीते हुए स्वंय को देखना, जानना व परखना सीखता है व बाहरी जगत में अपनी क्षमताओं का लोककल्याण के लिए सामुहिक व सकारात्मक सोच के साथ समाज व देश और सारी दुनियां के हित में कार्य व व्यवहार करना सीखता है।
वास्तव में अध्यात्म ही वह मार्ग है जो पुलिसकर्मियों में नेतृत्वक्षमता, त्वरित निर्णय लेने की क्षमता व आम जन के साथ सोहार्द का वातावरण बनाने के लिए राह दिखा सकता है। ध्यान व योग को प्रतिदिन के जीवन में उतारने से व्यवहार व आचरण में बदलाव आ आता है व अपराधों पर नियत्रंण में पुलिसकर्मियों को सकारात्मक भावों के साथ दूसरे के हित में जीने को पे*रित कर सकता है। अगर हम पुरातन पन्नों को पलटें तो हम पायेगें कि दूसरे के भले के लिए जीवन जीना हिन्दुस्थान का दर्शन था लेकिन हम उस दर्शन को भूल चुके हैं व स्वकेन्द्रित स्वार्थपरक व पे*म और भावों से हीन कुंठित जीवन जी रहे हैं इसीलिए आज हर जगह समस्या ही समस्या और अशांति, द्वेष, ईष्या, प्रतिस्पर्धा, हिंसा, अहंकार, दिखावा व अपराध का माहोल है। इसलिए आज उसी दर्शन को पुर्नजीवित करने की जरूरत है जिससे हम अपराधमुकत समाज व तनावमुक्त जीवन को बढावा देकर देश को पुनः शांति व समता और समृद्वि से भरपूर विश्व गुरू के रूप में प्रतिष्ठापित कर सकते हैं।
लेखकः-
(मोती लाल वर्मा)
जन सम्फ अधिकारी
सीआईडी(सीबी) पुलिस मुख्यालय, जयपुर
बुधवार, 1 जुलाई 2009
अपराधों पर नियंत्रण हेतु अध्यात्म ही एक मात्र सहारा
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