राज्य में गहलोत सरकार ने बेशक शुद्ध के लिए युद्ध नामक अभियान नेक इरादे से शुरू किया होगा, लेकिन इसके वांछित परिणाम नहीं मिल रहे, मिल भी नहीं सकते यदि अभियान को इसी तरह बिना पूर्व में विचारे और बिना तैयारी के जारी रखा गया। मिलावट, कम तोल और डुप्लीकेट माल के बाजार में इतने प्रचलित होने के पीछे निश्चित रूप से आम उपभोक्ता अर्थात आम जनता की घटिया मानसिकता भी है। कितने लोग हैं जो महीने के पहले दिनों में, तनख्वाह मिलते ही या किसी निर्धारित तिथि पर बाजार में जाकर थोक मूल्यों पर उसकी शुद्धता की चिंता करते हुए खरीदते हैं? कुछ समय पूर्व तक घर की मालकिनें साबुत मसाले खरीद उन्हें घर पर पीसने का बंदोबस्त करती थीं और मिलावट की संभावना को ही समाप्त किया जाता था। शुद्ध दूध के लिए घर-घर में नहीं तो आठ-दस घरों में से किसी एक में गाय-भैंस को रखने का रिवाज था ताकि निर्धारित भाव में वह शुद्ध दूध खरीद सके। साल में इकट्ठा गेहूं, चना आदि लेने का रिवाज इसलिए था कि गेहूं/चना को घर में ही साफ करवाकर, चक्की पर अपने सामने पिसवाया जाए ताकि आटा/बेसन आदि शुद्ध मिल सकें। अब स्थिति यह है कि घर का कोई सदस्य उठकर सब्जी मण्डी जाने को तैयार नहीं, जहां उन्हें ताजा सब्जी वाजिब दामों पर मिल सकती है और घर का मालिक वहां मापतोल पर भी सवाल उठा सकता है।
हर जगह एक आदत पड गई है कि गली-मोहल्लों में ठेलों पर सब्जी खरीदी जाए चाहे वह बासी हो, महंगी हो या तोल में कम मिले। साबुत मसालों या अनाज खरीदने की पवर्ती समाप्त हो गई है। मुसीबत तो तब खडी होती है जब घर की मालकिन दूधवाले से भाव का मोल-तोल करती है। जब टंकीवाला शुद्ध दूध गांव से 17 रुपये लीटर खरीदेगा तो वह किसी भी उपभोक्ता को 14 या 15 या 16 रुपये लीटर कैसे दे सकता है? उसकी मेहनत है, समय की बरबादी है। निश्चित रूप से वह प्रति लीटर कुछ मुनाफा चाहेगा और 19-2॰ रुपया के भाव बेचेगा। साबुत मसाले यदि पचास या सत्तर रुपये किलो हैं तो गृहिणियां वही मसाले पिसे हुए उससे कम कीमत पर कैसे मांग सकती हैं? और यदि मांगेंगी तो उन्हें मिलेगा क्या? यहां तो समस्या यह है कि जब मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा राजी? जब मिलावटी, डुप्लीकेट या घटिया और कम तुली हुई सामग्री लेने में ग्राहक को कोई परेशानी नहीं है तो सरकार भी क्या करेगी? इसमें सरकार का भी दोष है कि उसने हर कस्बे, शहर और गांवों में आबादी क्षेत्रों में दुकानों को पनपने की इजाजत दे रखी है। यह सरासर गैर कानूनी है, अनैतिक है। गरीब लोगों को वाजिब दामों पर अपना मकान बनाने के लिए दिए गए भूखण्डों को यदि हर कोई व्यावसायिक मकसद से बरतने लगे तो यह शासन की मूल भावना के विपरीत है।
यही कारण है कि गली-गली में खुली ये दुकानें उपभोक्ताओं को सुविधा देने के नाम पर शोषण करने में लगी हैं। इससे मिलावट, कम तोल व डुप्लीकेट सामान बिकने की संभावना ज्यादा रहती है। अलवर में पिसे मसालों की बिक्री पर रोक लगाने और दूध बेचने वालों को नगर परिषद के साथ अनिवार्य रूप से पंजीकृत करने की कोशिश स्वागत योग्य है। हर जगह पर हर व्यापारी पंजीकृत होना चाहिए। प्रत्येक व्यापारी के यहां इस्तेमाल किए जाने वाले बाट व हर तरह के माप का प्रमाणीकरण किस तिथि को, किस सरकारी अधिकारी द्वारा किया गया है, इसकी सूचना ठेले वाले से लेकर बडी दुकानों तक के पास बाकायदा दर्शाई जानी चाहिए। सरकार ने पिसे मसाले सहकारी संस्थाओं की ओर से बिकवाने का पबंध किया है, वह तो ठीक है, लेकिन आम जनता को शिक्षित किया जाना बहुत जरूरी है कि अनधिकृत जगहों से और लालचवश खरीददारी उनके लिए कितनी घातक पडती है। आम जनता अपने-अपने यहां दूध की जांच का यंत्र रख सकती है, बाट और माप रखकर बाजार से लाई हुई हर चीज को वे माप और तोल सकते हैं। इसके कम मिलने पर दुकानदार से शिकायत की जा सकती है। जो दुकानदार न सुधरें उनका बहिष्कार करने की पहल भी आम आदमी को ही करनी होगी। समाज में किसी भी तरह की कमजोरी या बुराई को दूर करने का यह सर्वोत्तम तरीका है कि उसका बहिष्कार किया जाए। आम आदमी को इस बात पर ताली नहीं बजानी चाहिए कि सरकार का हेलमेट की अनिवार्यता या शुद्ध के लिए युद्ध अभियान असफल हो रहे हैं। इस बात के लिए अपना सिर दीवार से टकराना चाहिए क्योंकि ये तमाम अभियान उसकी सुरक्षा व हित में चलाए जाते हैं। आप हेलमेट नहीं पहनेंगे और आपका सिर फूट जाएगा तो गहलोत या मनमोहन सिंह का कुछ बिगडने वाला नहीं है। इसी तरह शुद्ध के लिए युद्ध अभियान चलाने में गहलोत या कलक्टर या डीएसओ से ज्यादा आपकी सक्रियता जरूरी है। समस्या यह है कि समाज के हर तबके का लगभग हर व्यक्ति किसी न किसी तरह की बेईमानी, अवैध धंधे, चोरी-चकारी या कानून तोडने में लिप्त है। उसे यह लगता है कि उसने दूध में मिलावट की शिकायत की तो दूधवाला उसके धंधों की पोल खोल देगा। बिजली और पानी की शिकायत हम इसलिए नहीं करते कि वह महकमा नगर पालिका वालों से कहकर हमारे द्वारा किए गए अतिक्रमण की ऐसी-तैसी कर देगा। हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हम अपने बच्चे को अच्छे स्कूल तक छोडकर आने और वापस लाने को तो जहमत समझते हैं, लेकिन ठाले बैठ ताश खेलने या जरदा चबाने या टीवी पर फालतू पोग्राम देखने को ज्यादा महत्त्व देते हैं। बाजार में शुद्ध सामान खरीदने, वाजिब दामों पर ताजा सब्जी खरीदने और पैसा बचाने को महत्त्व नहीं देते, पिसे-पिसाये मसाले तैयार आटे व घर पर मुहैया करवाई जाने वाली सडी सामग्री को अपने रुतबे का सूचक समझते हैं। ऐसी सडी-गली सोच के साथ तो हमें सडी-गली सामग्रियाँ ही मिलेंगी।
शुक्रवार, 10 जुलाई 2009
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2 टिप्पणियां:
sahi bathai.narayan narayan
बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
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